“संपूर्ण मानव जीवन प्रासंगिक है, जिसमें धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, आदि-अनंत, क्लेश-कलंक आदि प्रसंगों से मानव का सामना होना स्वाभाविक है। जीवनकाल में मनुष्य प्रत्येक क्षण किसी न किसी भाव को अंतर्मन में समाहित किए रहता है, जिसके प्रभाव के कारण उसका आचरण उस भाव पर निर्भर हो जाता है।
आधुनिकता के इस युग में मानव प्रतिदिन के विभिन्न क्रियाकलापों में व्यस्तता के कारण स्वयं को समय देना भूल गया है। ऐसे ही प्रतिदिन की व्यस्तता में जब हम अपने आस-पास चिलचिलाती धूप में तपन की परवाह न करते हुए, ख़ुशी से हँसते- खिलखिलाते बच्चों को देखते है तब कुछ क्षण के लिए चेहरे पर जो वास्तविक मुस्कान बिखरती है, वह हमारे बालपन की स्मृतियों को पुनः जाग्रत कर देती है। आज भी यदि हम नादनी करते हैं तो अक्सर सुनने को मिलता है कि बड़े तो हो गए पर बचपना नहीं गया। बचपन हमारी स्मृति की एक अमिट अवस्था है। चाहे माँ का दुलार हो, पापा का प्यार हो, खेल-खेल में कोई चोट या भाई-बहन की नोक-झोक, यह सभी तो थे वह चिंतारहित आनद के दिन। बचपन में कोई झगडा हो जाता तो कुछ पल के बाद हम भूल जाते और झगडा स्वयं मिट जाता था। कोई चिंता या किसी की डांट सताती तो कुछ पल बाद मस्ती में गम हो जाती, न रंग का कोई भेद-भाव, न जाति-पाति की समझ और न ही किसी से शत्रुता, खेल-खेल में जिससे पहचान हो जाती, उससे ही घनिष्ठ मित्रता हो जाती, वास्तव में बचपन को बचपन कहना जितना सार्थक है उससे अधिक सार्थक बचपन को वरदान कहना है। वैचारिक तथ्य है कि बाल अवस्था में बच्चों को भगवान का रूप कहा जाता है। किन्तु जैसे-जैसे विवेक में वृद्धि होती है सामाजिक विसंगतियों का जाल हमें घेर लेता है।
कितनी सुन्दर परिकल्पना है कि यदि बचपने का यदि अंशमात्र भी जीवन भर मानव का साथ न छोड़े तो मानव किसी को अपना शत्रु नहीं बना पाएगा और यदि बना भी लिया तो शत्रुता का भाव अधिक समय तक नहीं रह पाएगा। दौलत, शौहरत, नाम और रुतबे की आस के साथ बचपन की आस भी कहीं न कहीं जन्म ले ले तो मानव जीवन खुशियों से भर उठेगा। धैर्य, सुख, शांति और सद्भावना की अलख जाग्रत हो सकेगी। आवश्यकता केवल इतनी है कि स्वयं को वरिष्ठ मानने के साथ कभी-कभी बचपन में भी जी कर देखें, आनंद मिलेगा, जन्म लेगी जब बचपन की आस।
उमेश पंसारी छात्र (पी.जी. कॉलेज, सीहोर)
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