दिल से जो बात निकलती है असर रखती है , शायर अल्लामा इक़बाल

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है


अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है

तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख


माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख मिरा इंतिज़ार देख

असर करे न करे सुन तो ले मिरी फ़रियाद
नहीं है दाद का तालिब ये बंदा-ए-आज़ाद
 

असल मायने महबूब से इश्क के इकरार और तकरार से है...


यूं तो शेरो-शायरी के असल मायने महबूब से इश्क के इकरार और तकरार से है, लेकिन इकबाल इन सभी से बेहद आगे हैं। वो अपने शेरों में सिर्फ माशूका की खूबसूरती, उसकी जुल्फें, उसके यौवन की बात नहीं करते बल्कि उनके शेरों में मजलूमों का दर्द भी नजर आता।

मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ


नशा पिला के गिराना तो सब को आता है
मज़ा तो तब है कि गिरतों को थाम ले साक़ी

तेरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में


दिल की बस्ती अजीब बस्ती है,
लूटने वाले को तरसती है

दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो
लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में

तेरी आँख मस्ती में होश्यार क्या थी


भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा
तेरी आँख मस्ती में होश्यार क्या थी
 

इस नज्म ने तो इकबाल को बुलंदियों पर पहुंचाया


सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं

तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएं
यहां सैकड़ों कारवां और भी हैं

क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर
चमन और भी आशियां और भी हैं

अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ां और भी हैं

तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमां और भी हैं

इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा
कि तेरे ज़मान ओ मकां और भी हैं

गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
यहां अब मिरे राज़-दां और भी हैं

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